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देवता: मरूतः ऋषि: कण्वो घौरः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

नि वो॒ यामा॑य॒ मानु॑षो द॒ध्र उ॒ग्राय॑ म॒न्यवे॑ । जिही॑त॒ पर्व॑तो गि॒रिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni vo yāmāya mānuṣo dadhra ugrāya manyave | jihīta parvato giriḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि । वः॒ । यामा॑य । मानु॑षः । द॒ध्रे । उ॒ग्राय॑ । म॒न्यवे॑ । जिही॑त । पर्व॑तः । गि॒रिः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:37» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजा और प्रजाजन कैसे होने चाहियें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजासेना के मनुष्यो ! जिस सभापति राजा के भय से वायु के बल से (गिरिः) जल को रोकने गर्जना करनेवाले (पर्वतः) मेघ शत्रु लोग (जिहीत) भागते हैं वह (मानुषः) सभाध्यक्ष राजा (वः) तुम लोगों के (यामाय) यथार्थ व्यवहार चलाने और (मन्यवे) क्रोधरूप (उग्राय) तीव्र दण्ड देने के लिये राज्यव्यवस्था को (दध्रे) धारण कर सकता है ऐसा तुम लोग जानो ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे प्रजा सेनास्थ मनुष्यों तुम लोगों के सब व्यवहार वायु के समान राजव्यवस्था ही से ठीक-२ चल सकते हैं और जब तुम लोग अपने नियमोपनियमों पर नहीं चलते हो तब तुम को सभाध्यक्ष राजा वायु के समान शीघ्र दण्ड देता है और जिसके भय से वायु से मेघों के समान शत्रुजन पलायमान होते हैं उसको तुम लोग पिता के समान जानो ॥७॥ मोक्षमूलर कहते हैं कि हे पवनों आपके आने से मनुष्य का पुत्र अपने आपही नम्र होता है तथा तुम्हारे क्रोध से डर के भागता है। यह उनका कथन व्यर्थ हैं, क्योंकि इस मंत्र में गिरि और पर्वत शब्द से मेघ का ग्रहण किया है। तथा मानुष शब्द का अर्थ धारण क्रिया का कर्त्ता है और न इस मंत्र में बालक के शिर के नमन होने का ग्रहण है। जैसा कि सायणाचार्य का अर्थ व्यर्थ है वैसा ही मोक्षमूलर का भी जानना चाहिये। वेद का करनेवाला ईश्वर ही है मनुष्य नहीं इतनी भी परीक्षा मोक्षमूलर साहिब ने नहीं की पुनः वेदार्थज्ञान की तो क्या ही कथा है ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(नि) निश्चयार्थे (वः) युष्माकम् (यामाय) यथार्थव्यवहारप्रापणाय। अर्त्तिस्तुसु० उ० १।१३९#। इति याधातोर्मप्रत्ययः। (मानुषः) सभापतिर्मनुजः (दध्रे) धरति। अत्र लडर्थे लिट्। (उग्राय) तीव्रदण्डाय (मन्यवे) क्रोधरूपाय (जिहीत) स्वस्थानाच्चलति। अत्र लडर्थे लिङ्। (पर्वतः) मेघः (गिरिः) यो गिरति जलादिकं गृणाति महतः शब्दान् वा सः ॥७॥ #[वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ ‘१।१४०’ एषा संख्या वर्त्तते।]

अन्वय:

पुनाराजप्रजाजनैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजासेनास्था मनुष्या भवन्तो यस्य सेनापतेर्भयाद्वायोः सकाशाद्गिरिः पर्वत इव शत्रुगणो जिहीत पलायते स मानुषो वो युष्माकं यामाय मन्यव उग्राय च राज्यं दध्र इति विजानन्तु ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोलंकारः। हे प्रजासेनास्था मनुष्याः युष्माकं सर्वे व्यवहारा राज्यव्यवस्थयैव वायुवद्व्यवस्थाप्यन्ते। स्वनियमविचलितेभ्यश्च युष्मभ्यं वायुरिवसभाध्यक्षो भृशं दण्डं दद्यात् यस्य भयाच्छत्रवश्च वायोर्मेघाइव प्रचलिता भवेयुस्तं पितृवन्मन्यध्वम् ॥७॥ मोक्षमूलरोक्तिः। हे वायवो युष्माकमागमनेन मनुष्यस्य पुत्रः स्वयमेव नम्रो भवति युष्माकं क्रोधात् पलायत, इति व्यर्थास्ति कुतोऽत्र गिरिपर्वतशब्दाभ्यां मेघो गृहीतोस्ति मानुषशब्दोर्थो निदध्रे इति क्रियायाः कर्त्तास्त्यतो नात्र बालकशिरो नमनस्य ग्रहणं यथा सायणाचार्यस्य व्यर्थोर्थः तथैव मोक्षमूलरस्यापीति वेद्यम्। यदि वेदकर्त्तेश्वर एव नैव मनुष्याः सन्तीत्येतावत्यपि मोक्षमूलरेण न स्वीकृतं तर्हि वेदार्थज्ञानस्य तु का कथा ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे सैनिकांनो ! तुमचे सर्व व्यवहार वायूप्रमाणे राज्यव्यवस्थेनुसारच चालतात. जेव्हा तुम्ही आपल्या नियमोपनियमाप्रमाणे वागत नाही तेव्हा तुम्हाला सभाध्यक्ष राजा वायूप्रमाणे तात्काळ दंड देतो. वायूमुळे जसे मेघ पळतात तसे ज्याच्या भयाने शत्रू पळून जातात त्या राजाला तुम्ही पित्यासमान माना. ॥ ७ ॥
टिप्पणी: मोक्षमूलर म्हणतात की, हे वायूंनो ! तुमच्या येण्या-जाण्याने माणसाचा पुत्र स्वतःच नम्र होतो व तुमच्या क्रोधाने, भयाने पळून जातो. हे त्यांचे कथन व्यर्थ आहे. कारण या मंत्रात गिरी व पर्वत या शब्दांनी मेघाचा अर्थ घेतलेला आहे व मानुष शब्दाचा अर्थ धारणक्रियेचा कर्ता आहे. या मंत्रात बालकाच्या मस्तकाला नमन होण्याचा अर्थ ग्रहण केलेला आहे. जसा सायणाचार्यांचा अर्थ व्यर्थ आहे तसाच मोक्षमूलरचाही आहे हे जाणले पाहिजे. वेदाचा कर्ता ईश्वरच आहे माणूस नाही. एवढीही परीक्षा मोक्षमूलर साहेबांनी केलेली नाही. पुन्हा वेदार्थज्ञानाची तर काय कथा! ॥ ७ ॥